मैं तेजपुंज, तम में प्रकाश भरता हूं,
जग को गीता का अमर दान करता हूं।
मैं सिखलाता हूं जग को भाईचारा,
सौहार्द और प्रेम से ही जग में उजियारा।
मैं निर्गुण और सगुण सबका पंथी हूं,
तुलसी, कबीर, रसखान, सूर संगी हूं।
चल अचल सभी मेरे ही तो साथी हैं,
'हिन्दू' हूं मैं, मित्रता मेरी थाती है।
मैंने ही तो सिंधु को ज्वार दिया था,
मुझसे ही तो 'सिकंदर' हार गया था।
मैंने ही तो 'भारत' को एक किया था,
ले फूल हांथ, खड्गों को फ़ेंक दिया था।
मैं हूं 'कौटिल्य', हूं 'चंद्रगुप्त' भी मैं ही,
मैं ही 'आज़ाद', हूं 'भगत सिंह' भी मैं ही।
मैं ही हूं वो अश्फाक जो अमर हुआ था,
जिसने पुनर्जन्म में भारत को चुना था।
मैं हूं 'सुभाष', जिसने सब भेद मिटाया,
मज़हब को छोड़ मुल्क का गान सुनाया।
जितने जग में सब पंथ और पंथी हैं,
सब तो मेरे ही साथी हैं, संगी हैं।
फिर क्यों हिन्दू का नाम आज मिटता है?
क्यों हिन्दू को पहचान धर्म देता है?
मैं सिंधुपति, इसलिए नाम हिन्दू है,
सारे जग में जो प्रेम का मुख्य बिंदु है।
जो लोग हिन्दू का नाम लिए चलते हैं,
लेकिन मन में विष भेद घोला करते हैं,
उनसे कह दो सत्ता से धर्म हटाएं,
या कि सत्ता को छोड़ आप हट जाएं।
जो राम नाम पर राजनीति करते हैं,
सारे समाज को विभाजित यहां करते हैं।
उन पर राम की दया कभी ना होगी,
डूबेंगे गर्त में, उनकी सुबह कभी ना होगी।
- रजत द्विवेदी
Comments
Post a Comment